आओ बातें करे

Monday, September 27, 2010

गौरवशाली है बिहार

कुछ यूं देखता हूं अपनी जड़ों को
कुछ ऐसे बसी है मेरी मिट्टी मेरे अंदर
बिहार के कुछ ऐसे सहेजा है मैंने ...

बिहार पर पहली बार कुछ बनाया है

Monday, September 20, 2010

नशा शराब में होता, तो नाचती बोतल

नशा शराब में होता, तो नाचती बोतल...ये जुमला आपने सुना होगा...किसी अनजाने शायर के इन शब्दों में आपको सच्चाई भी नजर आई होगी...तर्क की कसौटी को बिना घिसे मैं भी इस जुमले की सच्चाई में यकीन करता हूं...लेकिन ये यकीन मेरे मन में यू ही नहीं आ बैठा है...मैंने इस जुमले के हर शब्द को चरित्रार्थ होते देखा है...चलिए आपको भी बताता हूं...मेरे मित्र नरेंद्र की शादी थी..ये शादी दिल्ली में हो रही थी...वैसे मैं शादी-वादी की पार्टियों से परहेज करता हूं...लेकिन नरेंद्र को नकार न सका...और चला गया देसी अंदाज में तैयार होकर..नोएडा के एक भव्य माल में शादी का आयोजन किया गया था... शादी की जगह पर पहुंचकर लगा मानो किसी शहंशाह के शाही भोज में आया हूं...हिन्दुस्तानी शादी के अंदाज को देख लगता है कि हर आदमी शहंशाह बनने की ख्वाहिश पालता है..यही वजह है शादियों में सारी कसर पूरी करता है...गाजा-बाजा-सिंहासन, वो सब कुछ का लुत्फ उठाता है, जो आम जिंदगी में उसके कुव्वत के बाहर की चीज होती है...नरेंद्र की शादी में खाने पीने से लेकर नाचने तक की बड़ी शानदार व्यवस्था थी...पकवान इतने कि ऊंगलियों पर गिना न जा सके...ललीज भोजन से अगर कोई ऊब जाए तो डांस प्लोर पर थिरक कर मस्ती कर सकता था...खाने के बाद रस्म अदायगी और दोस्तों के गुजारिश के बाद मैंने अपनी कमर लचकायी...लेकिन ज्यादा मजा देखने में आ रहा था...बाराती-घराती सब एक रंग में डूब नाच रहे थे... वैसे शादी में होने वाले डांस में मूव्स की गुंजाइश थोड़ी सीमित ही होती है...बचपन से शादी में होने वाले नाच मैंने देखे हैं, उसमें सबसे ज्यादा रिपीटेशन रूमाल डांस का ही होता देखा है...गाना कोई भी चल रहा हो, लोग मुंह रूमाल दबाकर नागिन या नाग तरह नाचने की कोशिश करते हैं...लेकिन अब जमाना बदल गया है...लोग अब डांस में फिल्मी अदाओं को शामिल करने की गुंजाइश बना लेते हैं...लिहाजा, कभी कोई रेल बना रहा था तो कभी कोई दबंग की अकड़ दिखा रहा था...हर किसी अपनी नृत्य भंगिमा थी...लेकिन बात दंबग या फिर रेल गाड़ी तक ही सीमित नहीं रही...मदमस्त बाराती पीपली लाइव तक पहुंच गये थे...डांस प्लोर पर डीजे बजा रहा था—महंगाई डायन खायत जात है- इस गाने पर प्लोर पर शेरवानी, कोर्ट, टाई ओढ़े युवक और जड़ी-गोटे की खूबसूरत और महंगे लंहगे व साड़ियों में लिपटी युवतियां बदहवासी की हद तक ठुमके लगाए जा रहे थे..कोई गाने की मतलब या उसकी संवेदना पर रूकना नहीं चाहता था...उन्हें बस, डांस करने की धून थी...लिहाजा पीपली गांव की दर्द भरी गरीबी की गुहार पर भी ठुमके लगाने में कामयाब हुए...आप आप ही सोचिये महंगाई डायन खात जात में ताली पीटने और सिर धूनने तक की बात तो समझ में आती है...लेकिन दंबग स्टाइल में इस गीत पर ठुमके लगाना क्या संभव होगा....लेकिन डांस प्लोर सब चलता है...क्या अब मुझे कहने की जरूरत है कि नशा शराब में होती तो नाचती बोतल...झुमा देने वाले तत्व गाने की बजाय उसे सुनने वाले में होते हैं...लेकिन बात सिर्फ आधुनिक डांस फ्लोर तक सीमटी नहीं है...कुछ दिन पहने जन्माष्टी में भी यह जुमला चरित्रार्थ होता नजर आया....देवी-देवताओं की भव्य झांकियों से सजे जुलूस में बैंड ताशे वाले भी माहौल को भक्तिमय बना रहे थे...ये बात अलग है कि जो वो बजा रहे थे...उसका भक्ति से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था...सबसे आगे महाराजा बैंड था...उसकी टोली जो धून बजा रही थी...उसके बोल कुछ ये कह रहे थे- छलकाए जा आज की आज की रात...बैंड के पीछे-पीछे भारत माता की झांकी अपनी भव्यता के साथ चली जा रही थी...भारत माता के पीछे थे भगवान शिव, जिनके लिए धुन बजा रहा था गोपाल बैंड---गोपाल बैड के धून कुछ ऐसी आवाजे निकाल रहे थे-मेरा नाम चीन ची...रात चांदनी मैं और तू...बोलो मिस्टर हाऊ डू यू डू...अब इन गाने में आप भक्ति का रस अगर ढुंढगे तो ये काम शायद भगवान ढुंढने से ज्यादा कठिन होगा...बहरहाल, भक्ति, गानों में नहीं बल्कि भक्त के मन में होती है...ठीक उसी तरह नशा शराब में नहीं बल्कि पीने वालों में होता है...

ख्वाहिशों की लड़ियां बुन...



अपने शब्दों को सुर में ढलते देखना, बेहद सुखद अनुभव है...

Monday, September 13, 2010

अंतिम दिनों में

कभी-कभी हम एक लंबे अरसे तक इंतजार करते हैं, क्यों मालूम नहीं...जबकि चीजें हमारी पहुंच में होती है-छू लेने के फासले पर-फिर भी हाथ नहीं बढ़ाते हम...एक बार बहन की शादी के सिलिसिले में पटना गया था...मैं शादी बित जाने के बाद भी पटना में था...अच्छा लग रहा था अपने लोगों के बीच वहां रहना ...
अपने प्रोफेसर की लाइब्रेरी और वहां सांसे ले रहे समाजवादी आंदोलन के इतिहास को टटोलना...सर बातें करना, उनके जीये को फिर जीना...अचानक लगा,एक बंद कमरे में सर ऊब गए होंगे..सर शारीरिक रूप से कमजोर हो गए...लिहाजा, उनसे कह पड़ा- सर,कल हम गुरुद्वारे चलते हैं...अगली सुबह हम हरमंदिर में थे बैठे थे, चर्चा कर रहे थे सिख पंथ के वजूद पर...अचानक बीच में आ बैठी चुप्पी के बीच मैंने सर से कहा-पिछले 9 सालों से यहां आने की सोच रहा था....
सर का जवाब था मैं सन् 77 से यहां आना चाहता था...हम दोनों इसके बाद चुप थे, क्योंकि दोनों के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था कि हम यहां पहले क्यों नहीं आए...इंतजार क्यों कर रहे थे...अगर जवाब था भी , तो हम बयां करने की स्थिति में नहीं कर थे...सर नास्तिक की तरह जीते मैंने देखा है, पूरी उम्र वो कभी मंदिर नहीं गए और ना किसी देवी-देवता की मूर्ति के आगे मैंने उन्हें झुकते हुए देखा था...लेकिन गुरुद्वारे से निकलते वक्त वो दोबारा मंदिर की तरफ मुड़े और सजदे में किसी तरह छड़ी का सहारा लेकर झुके....जिस इंसान को मुझे गोद का सहारा देकर उठाना या बैठना पड़ता है...चलते वक्त कांधे का सहारा देना पड़ता है...वो नास्तिक इंसान गुरुद्वारा से निकलते वक्त छड़ी के सहारे खुद से दोबारा झुकता हैं...मेरा सहारा भी नहीं लेता...ये मेरे लिए अलग एहसास था...उन्हें देखकर यही लगा कि अंतिम दिनों में लोग शायद जिंदगी की तमाम चीजों को अपना लेते हैं....समेटे लेते है उन सभी चीजों को जो पहले उनसे छूट गया होता है...