एक सवाल आफिस की छत पर...
इस शहर ने मुझे दिया क्या है...
कुछ बदहवास, बेलौस मुलाकातों के बाद...
मैं पहुंचा हूं जहां
वहां एक क्षितिज हैं मेरे पासउड़ने के लिए
बीतने के लिए कुछ लोग
संभालने के लिए कुछ सहारे
और वो आशा
जिसके सामने हर बार निराशा बौनी पड़ती रही है
सब इसी शहर के हैं...
एक सवाल और भी है इस शहर से
उसने मुझसे लिया क्या है
मेरी आवारगी, मासूमियत, वो बचपन मेरा भोला सा
वो शहर मेरा छोटा सा
मेर रिश्ते प्यारे से
सब इसी शहर ने छीने हैं
पर मैं निराश नहीं इस शहर से
क्योंकि लेन-देन ही बुनियादी शर्त है
शहरी होने का
No comments:
Post a Comment